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कौन करते हैं जेएनयू का विरोध और क्यों?

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जेएनयू का मुद्दा भले ही पिछले एक सप्ताह से थोड़ा ठंडा पड़ा हो। लेकिन मैं लम्बे समय से अपने आस पास के माहौल में जेएनयू के प्रति लोगों की मानसिकता को ऑब्जर्व कर रहा हूँ। जो कहते हैं कि जेएनयू के छात्र 40 की उम्र तक पढ़ते हैं, हमारे टैक्स पर पलते हैं, देशद्रोही हैं, मुफ्तखोर हैं वगैरह - वगैरह। या जो किसी भी रूप में जेएनयू का विरोध करते हैं, उन्हें मैंने अपनी समझ के अनुसार 10 कैटेगरी में बांटा है। कैटेगरी - 1 : वे जिन्हें लगता है कि पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद की जाने वाली पढ़ाई निरर्थक है। उन्हें लगता है रिसर्च विसर्च सब बकवास है। इस कैटेगरी के लोगों का एक फिक्स माइंडसेट है। ये बिना पढ़े लिखे मजदूर को बेकार समझते हैं, 12वीं के बाद नौकरी करने वाले इंसान को निचले दर्जे का, ग्रेजुएशन के बाद नौकरी करने वाले को समझदार, पीजी के बाद नौकरी करने वाले को कम समझदार और पीएचडी करने वाले को मुफ्तखोर। इन्हें यह नहीं पता की सभी का देश के विकास में बराबर योगदान है। कैटेगरी-2 :  निजी परस्थितियों के चलते इन्हें कम उम्र से नौकरी करनी पड़ी। इसका जिम्मेदार ये सरकार को नहीं मान सकते, क्योंकि ये सरकार के समर्थक है

उस दुख भरे माहौल में एडवेंचर करने के लिए मोदीजी बधाई के पात्र हैं

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ईश्वर न करे ऐसा हो फिर भी सोचकर देखिए। आपके घर पर कुछ गुंडे हमला कर देते हैं। एक एक सदस्य को मौत के घाट उतारकर लाश के चिथड़े चिथड़े कर दिए जाते हैं। ये खबर घर के मुखिया को लगती है, जो पार्क में सैर करने गया है। वह क्या करेगा? मान लीजिए मुखिया पक्के दिल का भी है फिर भी दुखी मन से घर तो आएगा ? निश्चित ही आएगा। जानते हैं क्यों? क्योंकि वह महामानव नहीं है। वह एक मूर्ख इंसान है।  अब सोचिए आपको खबर लगती है कि आपके किसी दुश्मन की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई। लाश के परखच्चे उड़ गए। क्या आप अपना कोई मनोरंजक कार्य छोड़कर सोच में नहीं पड़ जाएंगे। क्या यह नहीं सोचेंगे उसे ऐसे नहीं मरना चाहिए था? यही व्यक्ति दुश्मन की जगह कोई दोस्त हो तो शायद आप दौड़े दौड़े जाएंगे उसके मृत शरीर को देखने, जिसमें अब कुछ नहीं बचा। हालांकि अब आप कुछ कर नहीं सकते फिर भी जाएंगें। क्योंकि आप इंसान हैं, साथ ही बेवकूफ भी। आपको इतना ज्ञान नहीं है कि मरा हुआ इंसान वापस तो आएगा नहीं। इसलिए बेहतर है कि अपना काम ही निपटा लिया जाए। भले ही वह काम कितना भी फालतू हो पर निपटा लिया जाए। क्योंकि जो हमारा अजीज़ है वह तब तक ही अजीज़ था जब तक

अब आलोचना का अधिकार भी सिर्फ सत्ता के पास ही होना चाहिए

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एक पत्रकार को योगीजी के लिए इस तरह की भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए था। योगीजी देश के एक प्रदेश के मालिक हैं, उन्हे हुज़ूर, महाराज या मालिक जैसे शब्दों से संबोधित किया जाना चाहिए। बेवकूफी की भी हद होती है, ये कोई लोकतांत्रिक देश नहीं है कि आप महाराज पर लगाए गए किसी भी आरोप का वीडियो शेयर कर देंगे। ये वो दौर है जहाँ इंटरव्यू से पहले सवाल कन्फर्म किये जाते हैं और तुम चले हो अभिव्यक्ति की आजादी की बात करने। मोदीजी कहते हैं लोकतंत्र में हंसी मजाक और आलोचनाएं होती रहनी चाहिए। लेकिन उनके इस कथन में कुछ टर्म्स एन्ड कंडीशन्स भी हैं। आलोचना और हंसी मजाक तो होना चाहिए, लेकिन आलोचना करने का काम सत्ता करेगी और आलोचना झेलने का काम विपक्ष करेगा और पत्रकारिता करेगी। यही इस दौर का सत्य है जिसे अधिकतम दरबारी पहले स्वीकार चुके हैं, आप भी जितने जल्दी मान जाएंगे बेहतर होगा। सरकार की आलोचना करना पत्रकारिता नहीं है, पत्रकारिता है ये पूछना कि आप बटुआ रखते हो या नहीं? प्रशांत कनोजिया के पोस्ट से मैं सहमत हूँ या नहीं ये विषय नहीं है। उनके पोस्ट से योगीजी को इतनी ठेस क्यों पहुँची ये भी मुद्दा नहीं है, क्यों

भीड़ के फैसले को अंतिम मान लेना लोकतंत्र नहीं है

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23 साल के जीवन में ज़्यादा कुछ तो नहीं देखा पर यह तो देखा ही है कि इससे पहले भी कई पार्टियां जीतती रही हैं और जीतकर सरकारें बनाती रही हैं। लेकिन ऐसा पहली बार देख रहा हूँ कि किसी पार्टी की जीत के आंकड़ों के आधार पर उसके खिलाफ उठ रही आवाज़ों को दबाया जा रहा है। ऐसा करने वाले लोग दो तरह के हैं। पहले तो वो जो खूलेआम सोशल मीडिया पर गाली और जान से मारने की धमकी देकर आलोचना करने वालों का मुँह बन्द करना चाहते हैं। दूसरे वो हैं जो शालीनता का नकाब ओढ़े हुए हैं। यह दूसरी प्रजाति ज़्यादा खतरनाक है। एक विशेष समुदाय के लिए दिल में भरी हुई नफरत और एक विशेष व्यक्ति के लिए दिल में बढ़ रही भक्ति को दबाते हुए दबी जुबान में कहते हैं- जनता के फैसले का सम्मान करना चाहिए, जनता ने उन्हें चुना है तो अब उनके बारे में कुछ भी कहना लोकतंत्र का अपमान है। मतलब अब भाजपा ही लोकतंत्र है, हिन्दूत्व ही एक विचारधारा है और मोदी जी का मतलब तो देश है ही। साहब, आप पूरी 542 सीटों पर भी अपने सांसद बैठा लेंगे तो आपके आका की आलोचना खत्म नहीं होगी। 99 प्रतिशत वोट भी उन्हें मिले तो 1 प्रतिशत को उनकी आलोचना का अधिकार होगा। आप फेसबुक ट

इस तरह भाई साहबों की कठपुतली बने रहते हैं राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता

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भाई साहब, हम सबकी ज़िंदगी बहुत मजेदार है। जो नेता पसन्द न आए, जी भर के सोशल मीडिया पर गुस्सा निकालो, जो जी में आए बक दो। साथ-साथ अपनी नौकरी करते रहो मजे में। ज़रा उन नेताओं, कार्यकर्ताओं के दिल से पूछिये काम क्या होता है, जो डंडे झंडे उठाते हैं, दिनभर व्हाट्सएप पे आईटी सेल के पोस्ट फॉरवर्ड करते हैं। जिन सो कॉल्ड भाई साहब के पीछे दिन भर घूमते हैं, वो यही दिलासा देते रहता हैै कि इस बार अपना टिकट पक्का। फिर आता है चुनाव, भाई साहब का टिकट तो पक्का है ही, बस मेहनत करना है जमके और भाई साहब को जिताना है। लेकिन जब टिकट कन्फर्म होता है तो पता चलता है कि भाई साहब का इस बार भी कट गया (टिकट)। उधर भाई साहब गुस्से में आग बबूला, इधर  कार्यकर्ता को समझ नहीं आता कि अब करें तो करें क्या बोलें तो बोलें क्या। डरते डरते भाई साहब से पूछते हैं- भाई साहब अब क्या करेंगे? अब भाई साहब वैसे ही गुस्से में हैं, हाईकमान का तो कुछ उखाड़ नहीं पाए, कार्यकर्ता पर ही बिफर पड़ते हैं। कार्यकर्ता बेचारा निराश अपने घर लौटता है, घर वालों के ताने तो रोज़ ही सुनता है तो उसकी कोई टेंशन नहीं है। बस भाई साहब का टिकट हो जाता तो अपनी भी

भाभीजी तो घर पर हैं पर क्या चुनाव आयोग देश में है ?

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जानता हूँ आलोचना करने की हिम्मत हर किसी में नहीं होती। लेकिन सरकार के आगे इस हद तक भी लोग झुक सकते हैं यह सोचा नहीं था। सामान्य दिनों में अगर सरकार से पैसा लेकर किसी टीवी चैनल या सीरियल के जरिये योजनाओं का प्रचार किया गया होता तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होती। लेकिन अचार संहिता में भी जिस तरह योजनाओं का खुलेआम प्रचार किया जा रहा है। उसके पीछे या तो बहुत बड़ा लालच हो सकता है या फिर डर। एन्ड टीवी नाम का एक चैनल इस हद तक सरकार की खुशामद में लग गया है कि किरदारों से मोदी जी की तारीफ करवाई जा रही है। इस चैनल पर प्रसारित होने वाले एक नाटक आता है भाभी जी घर पर हैं। इसमें कभी स्वच्छ भारत अभियान का प्रचार होता है तो कभी उज्ज्वला योजना का। अगर यकीन न हो तो आप नीचे दिए यूट्यूब के लिंक पर इस कॉमेडी सीरियल के वह दो सीन देख सकते हैं, जिनमें मोदी जी और उनकी योजनाओं की तारीफ की जा रही है, वो भी अचार संहिता के दौरान। अफसोस की बात तो यह है कि ये सब रोकने कि या इसके खिलाफ आवाज़ उठाने की जिम्मेदारी जिनकी है वह चुप हैं। पहले बात अपने ही पेशे से जुड़े लोगों की करता हूँ। फ़ेसबुक पर मेरी मित्र सूची में कुछ खु

बुरा न मानो ये होली वाला यौन शोषण है

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होली की सभी को बहुत शुभकामनाएं। यह लेख उन लोगों के लिए बिल्कुल नहीं है जिन्हें लगता है होली के दिन होली के नाम पर हो रहे यौन शोषण पर चर्चा करने से उनके त्यौहार का मज़ा खराब होता है। एक खुशनुमा होली मैं भी मनाना चाहता हूँ। लेकिन मुझे तब खुशी होगी जब लोग रंग लगाने के बहाने महिलाओं को गलत ढंग से छूना बंद कर देंगे। आप छूने की बजाए उन्हें गले लगाइये,  कोई मनाही नहीं है पर सहमति और असहमति नाम की चीज़ को नज़रअंदाज़ करना मत भूलिये। यह बात हम सब जानते हैं कि रंग लगाने के बहाने हर दूसरा पुरुष एक महिला को गलत ढंग से छूता आया है पर हम स्वीकार नहीं करना चाहते। क्योंकि हम जिस पुरुषप्रधान समाज में रह रहे हैं वह कभी अपने हीरो पुरुषों को गुनहगार देखना ही नहीं चाहता। यहां ये भी स्वीकारना जरूरी है कि इस पुरुषप्रधान समाज में पुरुषों के साथ महिलाओं का भी एक बड़ा तबका शामिल है। हमेशा से होली के नाम पर पुरुषों को रंग लगाने के नाम पर यौन शोषण करने की छूट मिलती आई है। वहीं महिलाएं जब आपत्ति करें तो उन्हें सुनने को मिलता है बुरा न मानो होली है। अरे भाई वह रंग लगाने पर नहीं बल्कि होली के नाम पर हो रहे यौन शोषण क