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महिलाओं पर अत्याचारों के प्रति हमारी संवेदनाओं का धीरे धीरे खत्म होना चिंता का विषय है

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महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों पर दिनोंदिन हम सबकी संवेदनाएं कम होते होते खत्म हो रही हैं। दरअसल इस बात का हमें एहसास ही नहीं है कि हम इन घटनाओं को कितनी सहजता से लेने लगे हैं। क्या हम सिर्फ सोशल मीडिया पर किसी घटना का विरोध करके ही अपने कर्तव्यों से कन्नी काटने में माहिर होने लगे हैं? जिस औरत को देवी मानकर पूजा जाता हो ,  उस औरत को वस्त्रहीन करके सड़क पर खुलेआम घुमाया जाना क्या हमारी संवेदनाओं  के अंत होने की निशानी नहीं है। मां या बहन की तरफ आंख उठाने पर आंख नोच लेने का दावा करने वाला यह समाज उस समय कहां था जब बिहार के भोजपुर जिले में एक महिला को सड़कों पर खुलेआम उसके कपड़े उतरवाकर घुमाया जा रहा था। ऐंसा करने के पीछे कारण था एक सनकी भीड़ का यह शक कि वह महिला एक युवक की हत्या में शामिल है। क्या इस देश में अब भीड़ के शक के आधार पर ही फैसले होंगे? अगर भीड़ को ही फैसले करना है तो फिर इस पुलिस, अदालत, कानून और लोकतंत्र का ढोंग क्यों किया जा रहा है। बलात्कारियों के खिलाफ होने वाले प्रदर्शनों में फांसी-फांसी चिल्लाने वाले लोगों में से क्या कोई भी उस वक़्त भोजपुर में नहीं था जो उस महिला को उन द