अब आलोचना का अधिकार भी सिर्फ सत्ता के पास ही होना चाहिए

एक पत्रकार को योगीजी के लिए इस तरह की भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए था। योगीजी देश के एक प्रदेश के मालिक हैं, उन्हे हुज़ूर, महाराज या मालिक जैसे शब्दों से संबोधित किया जाना चाहिए। बेवकूफी की भी हद होती है, ये कोई लोकतांत्रिक देश नहीं है कि आप महाराज पर लगाए गए किसी भी आरोप का वीडियो शेयर कर देंगे। ये वो दौर है जहाँ इंटरव्यू से पहले सवाल कन्फर्म किये जाते हैं और तुम चले हो अभिव्यक्ति की आजादी की बात करने। मोदीजी कहते हैं लोकतंत्र में हंसी मजाक और आलोचनाएं होती रहनी चाहिए। लेकिन उनके इस कथन में कुछ टर्म्स एन्ड कंडीशन्स भी हैं। आलोचना और हंसी मजाक तो होना चाहिए, लेकिन आलोचना करने का काम सत्ता करेगी और आलोचना झेलने का काम विपक्ष करेगा और पत्रकारिता करेगी। यही इस दौर का सत्य है जिसे अधिकतम दरबारी पहले स्वीकार चुके हैं, आप भी जितने जल्दी मान जाएंगे बेहतर होगा।
सरकार की आलोचना करना पत्रकारिता नहीं है, पत्रकारिता है ये पूछना कि आप बटुआ रखते हो या नहीं? प्रशांत कनोजिया के पोस्ट से मैं सहमत हूँ या नहीं ये विषय नहीं है। उनके पोस्ट से योगीजी को इतनी ठेस क्यों पहुँची ये भी मुद्दा नहीं है, क्योंकि ये योगीजी का निजी मामला है। मुद्दा है वह गिरफ्तारी, वह जस्टिफाई की जा रही गिरफ्तारी जो पूरी तरह से नियमविरुद्ध है। मानहानि के मामले में बिना कोर्ट के आदेश के की गई गिरफ्तारी। बिना स्थानीय पुलिस को सूचना दिए हुई गिरफ्तारी। बिना मजिस्ट्रेट के सामने व्यक्ति को पेश किए 11 दिन उसे अकारण जेल में रखने वाली गिरफ्तारी। सारी बातों से एक निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है, यह एक सिलेक्टिव लोकतंत्र है। जहाँ ट्विटर पर खुलेआम महिला पत्रकार की हत्या को जस्टिफाई करते हुए कोई उन्हें कुतिया कहता है तो वह जायज है। इस घटिया भाषा का उपयोग करने वाले को प्रधानमंत्री खुद फॉलो करें वो भी जायज है। योगीजी के ही विधायक पर बलात्कार की शिकायत दर्ज करने से पुलिस मना कर दे वो जायज है। यही नहीं, जिस लड़की ने आरोप लगाया, उसके पिता की पुलिस कस्टडी में ही हत्या कर दी जाए वो भी जायज है। फिर उसी विधायक को साक्षी महाराज जेल जाकर भाजपा की जीत की बधाई दें वो भी जायज है। नाजायज है तो पत्रकार का एक ट्वीट, जिसमें महाराज का अपमान हुआ है। अब एक तरफ पीड़िता के पिता की पुलिस कस्टडी में हत्या जैसी मामूली घटना के बारे में सोचिए और दूसरी तरफ महाराज के खिलाफ ट्वीट करने जैसे गंभीर अपराध के बारे में सोचिए। आप समझ जाएंगे प्रशांत कनोजिया कितने बड़े अपराधी हैं। दोनों ही मामलों में यूपी पुलिस की कार्रवाई का भी आंकलन कीजिये। बेवकूफी छोड़िये, सरकार की आलोचना और नेताओं के लिए इस तरह की हंसी मजाक वाली भाषा का उपयोग अब यहाँ नहीं चलेगा। योजनाओं का प्रचार-प्रसार कीजिये, वही पत्रकारिता है। प्रधानमंत्री की दिनचर्या, उनकी नींद का समय और उनके मशरूम पर थीसिस लिखिए, सकारात्मक पत्रकारिता कीजिए। यह करते-करते प्रतीक्षा कीजिये उस घड़ी की जब आलोचना करने वाले सब बेवकूफ जेल में भरे जाएंगे। लेकिन आप बच जाएंगे, क्योंकि आप समय पर संभल गए थे। आपका काम आपातकाल में भी ऐसा ही चलेगा जैसा अभी चल रहा है, एकदम पॉज़िटिव। लेकिन वो दौर भी गुजरेगा, फिर चुनाव होंगे, परिणाम आएंगे, विपक्ष सत्ता में आएगा। उनके नेताओं के पास आप माइक लेकर बाइट लेने दौड़ लगाते हुए पहुंचेंगे और पूछेंगे आपातकाल खत्म होने के बाद कैसा लग रहा है सर? सामने उस दौर का कोई आडवाणी खड़ा होगा जो कहेगा- आप लोगों से झुकने को कहा था, आप तो रेंगने लगे।


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